रावण के ससुराल में नहीं मनाया जाता है Dussehra, आखिर क्या है असली वजह ?
- Ankit Rawat
- 30 Sep 2025 07:34:41 PM
पूरे देश में धूमधाम से विजयादशमी मनाई जाएगी लेकिन मेरठ में एक जगह ऐसी भी है जहां माहौल गमगीन रहता है। रावण दहन के साथ बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न हर तरफ छाया रहता है। लेकिन उत्तर प्रदेश का मेरठ जिला जो रावण की ससुराल के नाम से मशहूर है, एक ऐसा गांव है जहां ये पर्व शोक में बदल जाता है। गगोल गांव के लोग 168 सालों से दशहरा नहीं मनाते हैं।
1857 की क्रांति के दौरान अंग्रेजों ने दशहरे के ही दिन नौ क्रांतिकारियों को फांसी दे दी थी। आज भी वो पीपल का पेड़ गवाह खड़ा है और गांव वाले अपने शहीद पूर्वजों को याद कर इस त्योहार को नहीं मनाते हैं।
मेरठ से निकली क्रांति की चिंगारी
मेरठ हमेशा से आजादी की जंग का केंद्र रहा है। 10 मई 1857 को मेरठ के बैरक में सिपाहियों ने विद्रोह का बिगुल फूंका, जो पूरे देश में फैल गया। गगोल गांव जो मेरठ शहर से महज 18 किलोमीटर दूर है उस आग का हिस्सा था। गांव की आबादी आज करीब 13,500 है, लेकिन 168 साल पहले उस काले दिन की यादें अभी ताजा हैं। अंग्रेजों को विद्रोह दबाने के लिए गगोल के नौ बहादुर बेटों के लिए मौत को चुना गया। दशहरे के शुभ मुहूर्त पर जब पूरा देश श्री राम की जय जयकार कर रहा था, अंग्रेजों ने क्रूरता दिखाई। गांव के बाहर एक विशाल पीपल के पेड़ से उन नौ क्रांतिकारियों को फांसी के फंदे पर लटका दिया। उनकी शहादत ने विद्रोह की चिंगारी को और भड़का दिया, लेकिन गांव में शोक की लहर दौड़ गई।
चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग के प्रमुख विग्नेश त्यागी बताते हैं कि अंग्रेजों ने जानबूझकर दशहरे का दिन चुना। उनका मकसद था विद्रोह को कुचलना और क्रांतिकारियों को सबके सामने सजा देकर डर फैलाना। वो नौ शहीद थे- रामसहाय, हिम्मत सिंह, रमण सिंह, हरजीत सिंह, कदेरा सिंह, घसीटा सिंह, शिब्बत सिंह, बैराम और दरयाब सिंह। ये सब शहीद गगोल के ही रहने वाले थे। उनकी फांसी के बाद गांव वालों ने फैसला लिया कि दशहरे पर कभी खुशी नहीं मनाएंगे। ये प्रण आज सात पीढ़ियों से चला आ रहा है। गांव में कोई पटाखे नहीं जलाता और न रावण दहन होता है।
दशहरे पर चूल्हा तक नहीं जलता
गगोल में दशहरा शोक का प्रतीक बन चुका है। स्थानीय लोग बताते हैं कि सुबह से ही माहौल उदास हो जाता है। गांव के बाहर उस पीपल के पेड़ के नीचे शहीदों की याद में शोक सभा होती है। लोग फूल चढ़ाते हैं, दीये जलाते हैं और चुपचाप पूर्वजों की कुर्बानी को सलाम करते हैं। घरों में चूल्हा तक नहीं जलता। कोई हर्षोल्लास का कार्यक्रम नहीं होता और न रामलीला का मंचन होता है। बुजुर्ग कहानियां सुनाते हैं कि कैसे उन नौ बहादुरों ने अंग्रेजों को ललकारा था। एक बुजुर्ग निवासी ने बताया, "दशहरा हमारे लिए जश्न का दिन नहीं, बल्कि वो काला अध्याय है जब हमारे खून-पसीने से सींची धरती पर अंग्रेजों ने क्रूरता की हद पार की। हम रावण जलाते तो अच्छा लगता लेकिन हमारे शहीदों की याद में हम खुद को जलाने को तैयार हैं।" गांव वाले मानते हैं कि ये परंपरा आजादी के जज्बे को जिंदा रखती है। बाहर से आने वाले लोग हैरान हो जाते हैं, लेकिन यहां के निवासी इसे अपनी विरासत मानते हैं।
जन्म पर भी मातम का साया
सबसे मार्मिक बात तो ये है कि दशहरे पर अगर किसी घर में नई संतान का जन्म होता है तो वो खुशी भी फीकी पड़ जाती है। कोई ढोल-नगाड़े नहीं बजाए जाते, न मिठाई बांटते हैं। बस शहीदों की याद में सिर झुकाए रहते हैं। एक महिला ने कहा, "हमारे यहां बच्चा पैदा हो जाए तो भी दशहरा पर मुस्कुराना गुनाह लगता है। वो दिन तो हमारे पूर्वजों की शहादत का है।" ये परंपरा गगोल को अनोखा बनाती है, जहां व्यक्तिगत खुशियां भी सामूहिक शोक के आगे झुक जाती हैं।
रावण की ससुराल में क्रांति का जज्बा
मेरठ को रावण की ससुराल कहा जाता है, क्योंकि मिथक है कि रावण की बहन शूर्पणखा यहीं रहती थी। लेकिन गगोल जैसे गांव इस धरती को क्रांति का गढ़ बनाते हैं। 1857 की क्रांति में मेरठ का योगदान इतना बड़ा था कि इसे 'स्वतंत्रता संग्राम का प्रथम केंद्र' कहा जाता है। गगोल की ये परंपरा न सिर्फ इतिहास को जिंदा रखती है, बल्कि युवाओं को सिखाती है कि
क्या होता है कुर्बानी का मतलब ?
आजादी के 78 साल बाद भी, जब पूरा देश दशहरे पर रंग-बिरंगे उत्सव में डूबा है वहां गगोल चुपचाप शहीदों को नमन करता है। विशेषज्ञ कहते हैं कि ऐसी परंपराएं सांस्कृतिक धरोहर हैं। विग्नेश त्यागी जैसे इतिहासकार मानते हैं कि गगोल की कहानी स्कूलों में पढ़ाई जानी चाहिए, ताकि नई पीढ़ी क्रांति के बलिदान को भूले नहीं। गांव वाले भी चाहते हैं कि पर्यटक आएं, पीपल के पेड़ को देखें और शहीदों की कहानी सुनें। लेकिन खुशी मनाने की बजाय, वो सिर्फ यादों में जीते हैं।
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