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भारत में रावण दहन की परम्परा कितनी पुरानी, रावण की मृत्यु के बाद शुरू हुई परंपरा या कलयुग में हुई शुरुआत?

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भारत में दशहरा का पर्व हर साल बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर रावण का पुतला जलाने की एक प्रथा है। जो देश के अलग अलग हिस्सों में होती है। लेकिन सवाल यह है कि रावण दहन की परंपरा कितनी पुरानी है? क्या यह परंपरा रावण की मृत्यु के तुरंत बाद शुरू हुई थी या यह विशेषकर कलयुग में शुरू हुई?

रावण दहन का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
दशहरे पर रावण दहन का मूल उद्देश्य है बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश देना। रामायण के अनुसार भगवान राम ने रावण का वध कर सीता माता को मुक्त कराया। रावण का पुतला जलाने की परंपरा इसी प्रतीकात्मक कथा पर आधारित है । धार्मिक दृष्टि से यह परंपरा केवल मनोरंजन का साधन नहीं है। यह समाज में धर्म और अधर्म, नैतिकता और अनैतिकता, अच्छाई और बुराई के मूल्य स्थापित करती है। बच्चों को छोटी उम्र से ही यह कहानी सुनाई जाती है जिससे नैतिक शिक्षा और सामाजिक मूल्यों का विकास होता है।

कैसे शुरू हुई परंपरा ?
रामायण, महाभारत और अन्य पुराणों में रावण के वध का विवरण मिलता है। लेकिन इन ग्रंथों में रावण दहन का सीधा उल्लेख नहीं है। यह दिखाता है कि महाकाव्य और धार्मिक ग्रंथों में केवल युद्ध और नैतिक शिक्षा का वर्णन था जबकि रावण दहन की परंपरा बाद के समय में विकसित हुई।

ऐतिहासिक और पुरातात्विक शोध से पता चलता है कि प्राचीन भारत में कई स्थानों पर धार्मिक उत्सव और रामलीला के माध्यम से रामायण की कथाओं का मंचन किया जाता था। खासकर 10वीं से 12वीं शताब्दी के बीच रामलीला के रूप में रामायण का मंचन होने लगा। यही वह समय माना जाता है जब रावण के पुतले का निर्माण और उनका दहन उत्सव का हिस्सा बन गया।

मध्यकालीन साहित्य में रावण दहन
मध्यकालीन भक्ति साहित्य और लोक कथाओं में रावण दहन की परंपरा का उल्लेख मिलता है। उत्तर भारत के कई मंदिरों और गांवों में दशहरे के समय रामलीला का आयोजन किया जाता था। इन मंचन में राम और रावण के युद्ध को जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया जाता था। विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में यह परंपरा मजबूत हुई। इन स्थानों में रावण का पुतला न केवल धर्म का उपदेश देता था, बल्कि इसे जलाकर सामूहिक उल्लास और समाज में नैतिकता का संदेश भी दिया जाता था।

कलयुग में रावण दहन 
आज की दशहरा परंपरा मुख्य रूप से कलयुग के प्रतीकात्मक आयोजन के रूप में विकसित हुई। आधुनिक समय में रावण के पुतले में केवल बुराई का प्रतीक नहीं बल्कि सामाजिक संदेश, मनोरंजन और सामूहिक उत्सव का भी हिस्सा देखा जाता है। पुतलों में कभी-कभी भ्रष्टाचार, अपराध या सामाजिक बुराइयों का प्रतीक बनाकर उन्हें जलाया जाता है। टीवी, रेडियो और सोशल मीडिया के माध्यम से रावण दहन का संदेश पूरे देश में फैला। बड़े शहरों और गांवों में रावण दहन के दौरान आतिशबाजी, रंग-बिरंगे पुतले और सांस्कृतिक कार्यक्रम शामिल किए जाते हैं। इस प्रकार देखा जाए तो आधुनिक दशहरा का स्वरूप परंपरा, मनोरंजन, सामाजिक संदेश का मिश्रण है।

इतिहासकारों का मानना है कि रावण दहन का प्रचलन प्राचीन भारत में मौखिक कथाओं और नाट्य रूपों के माध्यम से हुआ। ग्रंथ और मंदिरों में मिले चित्र और मूर्तियां बताते हैं कि दशहरा के समय रामायण का मंचन सदियों से किया जा रहा है। लेकिन रावण के पुतले को जलाने की प्रथा प्राचीन समय में व्यापक नहीं थी। यह परंपरा मध्यकाल में लोक संस्कृति का हिस्सा बनकर आने लगी। आधुनिक साहित्य और नाटककारों ने इसे लोकप्रिय बनाया।

बता दें कि भारत में रावण दहन की परंपरा का वास्तविक आरंभ रावण की मृत्यु के तुरंत बाद नहीं, बल्कि मध्यकालीन रामलीला और भक्ति साहित्य के माध्यम से हुआ। प्राचीन ग्रंथों में केवल युद्ध और नैतिक शिक्षा का वर्णन था जबकि पुतले का निर्माण और उनका दहन उत्सव का हिस्सा बाद में विकसित हुआ। आज रावण दहन केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक उत्सव का प्रतीक बन चुका है। यह परंपरा बच्चों को नैतिक शिक्षा देती है, समाज में अच्छाई और बुराई की पहचान कराती है, और सामूहिक उल्लास का माध्यम भी है। रावण दहन की परंपरा मध्यकाल से कलयुग तक चली आ रही है, जिसमें धार्मिक आस्था, लोक संस्कृति और आधुनिक सामाजिक संदेश का संगम देखने को मिलता है।

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